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10 मार्च 2020 को होली के दिन मध्य प्रदेश की सियासत में ऐसा तूफान आया था जिसने सबको चौंका दिया. एक शाही हस्ती के कदम से सत्ता का पूरा खेल पलट गया, लेकिन क्या आप जानते हैं उसके पीछे की पूरी कहानी क्या थी?
तारीख 10 मार्च 2020. होली का त्यौहार. पूरे देश में रंग-गुलाल की धूम थी, लेकिन मध्य प्रदेश की सियासत पर तो अलग ही रंग चढ़ने वाला था. भोपाल से लेकर ग्वालियर और दिल्ली तक एक अलग ही खेल की स्क्रिप्ट लिखी जा रही थी. स्क्रिप्ट के लेखक थे ग्वालियर के 'महाराज' और सिंधिया खानदान के वारिस ज्योतिरादित्य सिंधिया. होली की रंगीनियों के बीच ठीक इसी दिन सिंधिया ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. वे दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिले और बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद एमपी की कांग्रेस सरकार को गिराने का खेल शुरू हो गया. मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दावा किया कि उनके पास बहुमत है. उनके दावे के ठीक बाद एक-एक कर करीब दो दर्जन कांग्रेस विधायकों ने सिंधिया के साथ पार्टी छोड़ दी. 17 दिन तक चली उठापटक के बाद अंततः कमलनाथ को इस्तीफा देना पड़ा. केवल 15 महीने पहले कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए सिंधिया ने पूरे राज्य में प्रचार किया था. वे कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के प्रमुख थे. उनकी सभाओं में खूब भीड़ जुटती थी. इसी का नतीजा था कि 15 साल बाद सूबे की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हुई थी, लेकिन सीएम बनने की सिंधिया की ख्वाहिश पूरी नहीं हो पाई. ऊपर से सरकार बनने के बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी उन्हें पार्टी में अलग-थलग करने की कोशिश करने लगी. इस अपमान का बदला उन्होंने 15 महीने बाद कांग्रेस की सरकार को गिराकर लिया. बहरहाल, यह पहला मौका नहीं था जब सिंधिया परिवार के किसी शख्स ने अपने अपमान के कारण एमपी में कांग्रेस की सरकार गिराई हो. 53 साल पहले ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया ने भी यही किया था. उन्होंने भी तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र से अपने अपमान का बदला उनकी सरकार गिरा कर लिया था.
वह 1960 का दशक था. उन दिनों मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले द्वारिका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री हुआ करते थे. उस दौर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया मध्य प्रदेश की राजनीति में दबदबा रखती थीं. उस दौर की सियासत में राजे-रजवाड़ों का खासा प्रभाव था. अधिकतर राजा-महाराजा भी कांग्रेस के साथ ही खड़े दिखाई देते थे. मध्य प्रदेश का सिंधिया राजघराना भी कांग्रेस के निकट था. 1957 में अपना सियासी सफर शुरू करने वाली राजमाता सिंधिया तब कांग्रेस की सांसद थीं, लेकिन 1967 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. इसके बाद शुरू हुआ राजमाता का बदलापुर जिसका अंत मध्य प्रदेश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन के साथ हुआ.
दरअसल, चुनाव से कुछ महीने पहले पचमढ़ी में युवक कांग्रेस का सम्मेलन आयोजित हुआ था. इसमें विजयाराजे सिंधिया भी उपस्थित थीं. मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा ने सम्मेलन में राजशाही पर जमकर तंज कसा और तीखी टिप्पणियां की. उन्होंने राजशाही को लोकतंत्र का दुश्मन बता दिया. यह बात राजमाता विजयाराजे सिंधिया को नागवार गुजरी. उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और कांग्रेस छोड़ दी. 1967 में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस को बहुमत मिला. द्वारिका प्रसाद मिश्र फिर से मुख्यमंत्री बन गए. विजयाराजे शिवपुरी की करैरा सीट से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ी और जीती थीं. उन्हें विपक्ष का नेता बनाया गया. दूसरी ओर, राजमाता के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी में दरारें पड़ने लगीं थीं. अपमान की आग में जल रहीं राजमाता को इसी मौके की तलाश थी. उन्होंने द्वारिका प्रसाद मिश्र की सरकार गिराने की ठान ली.
विधानसभा का बजट सत्र चल रहा था. सदन में बजट पर बहस चल रही थी. शिक्षा से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा के दौरान शिक्षा मंत्री परमानंद पटेल का लंबा भाषण हुआ. इसके बाद वोटिंग होनी थी, तभी पता चला कि 36 विधायक सदन से गायब हैं. खबर मिली कि इन विधायकों को राजमाता और जनसंघ ने किडनैप कर लिया है. कहा जाता है कि उस दिन गोविंद नारायण सिंह नोटों से भरा सूटकेस लेकर विधानसभा भवन की सीढ़ियों पर बैठे थे. वो एक शख्स को रोकने की कोशिश कर रहे थे. भागने वाला शख्स एक विधायक था जो पैसे नहीं लेना चाहता था. मतलब साफ था कि विधायकों की खरीद-फरोख्त की जा रही थी.
दलबदल करने वाले विधायकों को दिल्ली ले जाने की योजना थी. इससे पहले उन्हें भोपाल के इंपीरियल सबेरे होटल में रखा गया था. जब 36 विधायक पूरे हो गए तो राजमाता के निर्देश पर उन्हें दो गोपनीय स्थानों पर रखा गया. अगले दिन उन्हें बस से ग्वालियर ले जाया गया. बस के आगे-पीछे राजमाता की स्पेशल फोर्स की दर्जनों गाड़ियां चल रही थीं. ग्वालियर पहुंचने पर राजमाता ने जयविलास पैलेस में विधायकों को पार्टी दी और फिर बसों में बिठाकर उन्हें दिल्ली ले जाया गया. वहां एक फाइव स्टार होटल में उनके रुकने का इंतजाम किया गया था. भारतीय राजनीति में विधायकों की किडनैपिंग और खरीद-फरोख्त की यह पहली घटना मानी जाती है.
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दिल्ली से जब इन विधायकों को वापस भोपाल लाया गया, तब भी राजमाता की स्पेशल फोर्स की गाड़ियां उनके साथ थीं. द्वारिका प्रसाद मिश्र को अंदाजा लग गया कि वे विधानसभा में बहुमत खो चुके हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस के दलबदलू विधायकों को मिलाकर संयुक्त विधायक दल यानी संविद का गठन हुआ. राजमाता को सीएम बनने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने अपनी जगह कांग्रेस के बागी गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई. वह खुद सदन की नेता चुनी गईं. इस तरह राजमाता का बदला तो पूरा हो गया, लेकिन संविद सरकार भी 19 महीने ही चल पाई. सरकार चलाने में राजमाता के लगातार हस्तक्षेप और आपसी मतभेदों के चलते गोविंद नारायण सिंह ने 10 मार्च, 1969 को इस्तीफा दे दिया. संविद सरकार में भ्रष्टाचार और कुशासन के किस्से आज भी एमपी के सियासी गलियारों में चटकारे लेकर सुने जाते हैं.
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