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‘बेटा लड़ेगा तो मैं नहीं...’, बिहार के उस CM की कहानी जिन्होंने अपने बेटे को टिकट देने से किया था इनकार

Bihar Assembly Election 2025: बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं. नेता टिकट के लिए जद्दोजहद में जुटे हैं. नेताओं के बीच टिकट बंटवारा में परिवारवाद का बोलबाला है. तब हमें याद आते हैं बिहार के पूर्व सीएम जो परिवारवाद का विरोध करते हुए अपने बेटे को टिकट देने से मना कर दिया था.

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‘बेटा लड़ेगा तो मैं नहीं...’, बिहार के उस CM की कहानी जिन्होंने अपने बेटे को टिकट देने से किया था इनकार

Shri Krishna Singh (Image- X)

Bihar Assembly Election 2025: बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं. नेता टिकट के लिए जद्दोजहद में जुटे हैं, कई अपने रिश्तेदारों को राजनीति में लाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन बिहार के इतिहास में एक ऐसा मुख्यमंत्री हुआ, जिसने परिवारवाद को सिरे से नकार दिया. हम बात कर रहे हैं बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिन्हा की, जिन्हें लोग ‘श्री बाबू’ और ‘बिहार केसरी ’ के नाम से जानते हैं. उनकी सादगी और सिद्धांतवादी सोच आज भी प्रेरणा देती है.

अपनी सादगी व सिद्धांतों के लिए मशहूर

डॉ. श्रीकृष्ण सिन्ह का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को मुंगेर जिले में हुआ था. उन्होंने पटना कॉलेज से कानून की पढ़ाई पूरी की और 1915 में मुंगेर में वकालत शुरू की. 1916 में बनारस में महात्मा गांधी से मुलाकात ने उनकी जिंदगी बदल दी. गांधी जी से प्रेरित होकर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 1922 में पहली बार जेल गए. आजादी के बाद वे बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने और अपनी सादगी व सिद्धांतों के लिए मशहूर हुए. श्रीकृष्ण सिन्ह ने परिवारवाद को कभी बढ़ावा नहीं दिया.

मेरा बेटा चुनाव लड़ेगा, तो मैं खुद चुनाव नहीं लडूंगा

दरअसल, 1957 में चंपारण के कुछ कांग्रेस नेताओं ने उनके बेटे शिवशंकर सिन्हा को विधानसभा चुनाव में उतारने का प्रस्ताव रखा. लेकिन श्री बाबू ने साफ कहा, 'अगर मेरा बेटा चुनाव लड़ेगा, तो मैं खुद चुनाव नहीं लडूंगा. एक परिवार से एक ही व्यक्ति को टिकट मिलना चाहिए.' इस सिद्धांत के चलते उनके बेटे को उनके जीवित रहते टिकट नहीं मिला. आपको बता दें 1961 में उनके निधन के बाद ही शिवशंकर विधायक बन सके.


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अपनी जनता पर पूरा भरोसा

श्रीकृष्ण सिन्ह की सादगी उनकी कार्यशैली में भी झलकती थी. वे अपने विधानसभा क्षेत्र खड़गपुर (मुंगेर) में अक्सर जाते थे, लेकिन कभी वोट मांगने नहीं. उनका मानना था, 'अगर मैंने जनता के लिए काम किया है, तो वे मुझे वोट देंगे.' इसके बावजूद वे कभी चुनाव नहीं हारे. गांव जाते समय वे अपने सुरक्षाकर्मियों को गांव के बाहर छोड़ देते थे, क्योंकि उन्हें अपनी जनता पर पूरा भरोसा था. आज जब बिहार में नेताओं के बीच टिकट के लिए परिवारवाद का बोलबाला है, श्रीकृष्ण सिन्हा की कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची राजनीति सिद्धांतों और जनसेवा पर टिकी होती है. उनकी यह मिसाल आज भी बिहार की राजनीति के लिए प्रेरणादायक है.

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