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Food Delivery Business In India: लड़कों के मान लिए गए कामों में कैसे मोर्चा फतह करेंगी लड़कियां?

Gender Gap in India : फूड डिलीवरी जैसे काम लड़कों के मान लिए गए है, वहां लड़कियां नदारद हैं. आइए इस बारे में हकीकत क्या है, पड़ताल करते हैं...

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Food Delivery Business In India: लड़कों के मान लिए गए कामों में कैसे मोर्चा फतह करेंगी लड़कियां?

फूड डिलीवरी के काम में लड़कियां नदारद

Food Delivery Business in India: आजकल फ़ूड डिलीवरी का काम बहुत फलफूल रहा है. हम सभी कभी न कभी बाहर से खाना मंगवाते हैं लेकिन खाना डिलीवरी करने हमेशा पुरुष ही आते हैं. क्या आपने कभी सोचा है कि इस काम में लडकियां क्यों नहीं दिखाई देती? आज जब लड़कियां हर क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ रही हैं तो इस क्षेत्र में उनकी उपस्थिति क्यों नहीं दिख रही? यह एक कटु सच है कि ई-कॉमर्स (E-Commerce) और फूड डिलीवरी कंपनियों (Food delivery companies) में लड़कियों की संख्या 1 फीसदी से भी कम है. जब इस बारे में गहराई से पड़ताल की तो पता चला कि लड़कियों के पास अपनी बाइक का नहीं होना, पीरियड्स की समस्या, पार्सल डिलीवर करने के दौरान टॉयलेट की सुविधा की कमी जैसी समस्याएं उनकी इस क्षेत्र में न दिखने की बड़ी वजहें हैं.  जाहिर सी बात है कि इस दिशा में पारिवारिक और सामाजिक संरचना के मर्दवादी होने के चलते लड़कियों का इस क्षेत्र में मोर्चा फतह करना बहुत मुश्किल है. 

फूड डिलीवरी के काम में सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा

फ़ूड डिलीवरी के काम में सुरक्षा एक बहुत बड़ा मुद्दा है. जिस घर या ऑफिस में खाना डिलीवरी करना है वहां किस तरह के लोग होंगे यह बात समझना बहुत मुश्किल नहीं है. आज जब फ़ूड डिलीवरी बॉयज के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ रही हैं तब ऐसे में महिलाओं का डरना स्वाभाविक है. एक बात और जोड़ता चलूं कि जब मैंने इस विषय पर काम शुरू किया तो गूगल या अन्य किसी सर्च इंजन पर Food Delivery Boys से संबंधित सूचनाएं तो मिलती हैं लेकिन Food Delivery Girls से जुड़ा डाटा नहीं मिलता है. 

स्वास्थ्य संबंधी दिक्कते भी बनती हैं रोड़ा

शुरूआती डिलीवरी गर्ल श्वेता पटोले के नाम का जिक्र यहां जरूरी होगा. मुंबई में पार्सल डिलीवरी करने वाली श्वेता पटोले ने अपने पिताजी की मौत के बाद परिवार की गाड़ी चलाने के लिए काम शुरू किया था. वह दिनभर में 60-70 पार्सल डिलीवर कर लेती थी और उसके बदले में महीने के महज 15-16 हजार रुपये मिलते थे. इस काम से जुड़े लोगों को सर्वाइकल (Cervical or Spondylosis) और स्लिप डिस्क (Slip Disk) की दिक्कत होने की संभावना बहुत रहती है. कमर दर्द तो बहुत ही आम है. श्वेता को भी कमर में भयानक दर्द रहने लगा और अंतत: उसे नौकरी छोड़नी पड़ी. इस सेक्टर में काम शुरू करने के कुछ महीने या कुछ वर्षों के बाद स्वास्थ्य संबंधी दिक्कत पैदा होने के चलते पुरुषों को भी कई बार नौकरी छोड़नी पड़ती है. 

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मोबिलिटी सेक्टर में महिलाओं की डिमांड साल दर साल बढ़ती जा रही है लेकिन Hey Deedee और Teamlease Staffing जैसी कंपनियों का अनुभव यह है कि मांग के अनुपात में सप्लाई में बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है. यह बताया जाता है कि इस सेक्टर में महिलाओं की मांग सालाना 30 फीसदी की रफ्तार से बढ़ने वाली है. अच्छी बात यह है कि स्विगी और जौमेटो अपने रेस्टोरेंट पार्टनर्स से महिलाओं के लिए टॉयलेट की सुविधा की मांग करने लगे हैं. Hey Deedee कंपनी मोबिलिटी सेक्टर में काम करने के लिए महिलाओं को ट्रैनिंग देने का काम भी करती हैं. कंपनी पेट्रोल पंप पर सर्विस देने और ग्राहकों से डील करने की पूरी ट्रेनिंग देती है. जोमैटो कंपनी में इस समय पूरे देश में 2,000 महिलाएं पार्सल डिलीवरी का काम कर रही हैं जबकि अमेजन कंपनी की डिलीवरी नेटवर्क कंपनी अमेजन फलेक्स ने तमिलनाडु, गुजरात, केरल और आंध्र प्रदेश राज्यों में पांच शहरों में सिर्फ महिलाओं को इस काम के लिए तैनात किया है.  

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देश के कई शहरों में सिर्फ महिलाओं द्वारा संचालित किए जाने वाले रेलवे स्टेशन, पेट्रोल पंप और स्टोर्स शुरू किए जा रहे हैं और इनके रिजल्ट बहुत पॉजिटिव मिल रहे हैं. जयपुर का गांधीनगर रेलवे स्टेशन पूरी तरह से महिला स्टाफ द्वारा चलाया जा रहा है. जयपुर में एक पेट्रोल पंप भी सिर्फ महिलाओं द्वारा संचालित हो रहा है.  

महिलाओं को लड़कर पहचान बनाती होती है: मेहरून निशा

इसी तरह का एक काम बाउंसर का भी है. सिनेमाघरों से लेकर रेस्टोरेंट और डिस्कोज में बाउंर्स का काम प्रमुख रूप से पुरुष ही करते आये हैं. इस घोर मर्दवादी  क्षेत्र में कदम रखने  वाली पहली लड़की मेहरुन  निशा थी  . मेहरून  निशा (Mehrun Nisha, First Female Bouncer in India) उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले से ताल्लुक रखती हैं. इस पेशे में वह महज 14 साल की छोटी सी उम्र में तब आईं  जब  महिला बाउंसर्स को सिक्योरिटी गार्ड कहा जाता था. निशा को अपने काम में कई चीजें परेशान करती थीं जैसे  उन्हें बाउंसर्स की तरह इज्जत क्यों नहीं दी जाती . क्यों मेल बाउंसर्स को इवेंट्स में खाने के लिए कोरमा और बिरयानी दी जाती है और फिमेल बाउंसर्स को शाकाहारी खाना परोसा जाता है. इसके लिए  उन्होंने एक लम्बी लड़ाई लड़ी और आज उसी संघर्ष का परिणाम है कि महिला बाउंसर्स को मर्द बाउंसर्स की तरह इज्जत दी जाने लगी है. निशा अब इवेंट्स में महिला बाउंसर्स प्रोवाइड कराने के लिए 'मर्दानी' नाम से एक एजेंसी भी चला रही हैं.

#फिशमैनबोलताहै

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