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Space Communication: ना कोई टावर, ना इंटरनेट कनेक्शन, फिर स्पेस में अंतरिक्ष यात्रियों से कैसे होती है बात?

Space Communication Techniques: अंतरिक्ष में कम्युनिकेशन करना आसान नहीं है, फिर भी स्पेस एजेंसियां इस काम को बेहद आसानी से कर डालती हैं.

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Space Communication: ना कोई टावर, ना इंटरनेट कनेक्शन, फिर स्पेस में अंतरिक्ष यात्रियों से कैसे होती है बात?

स्पेस में मुश्किल होता है कम्युनिकेशन

डीएनए हिंदी: अंतरिक्ष में हवा नहीं होती. निर्वात यानी वैक्यूम में किसी भी तरह का संचार मुश्किल होता है. अंतरिक्ष में न तो इंटरनेट के टावर लगे हैं और न ही कहीं कोई केबल बिछी है. अब सवाल यह उठता है कि चांद पर, मंगल ग्रह पर या अंतरिक्ष में मौजूद इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (International Space Station) में मौजूद वैज्ञानिकों से बातचीत कैसे होती है? कई बार हम देखते हैं कि स्पेस में बैठे वैज्ञानिक अपने वीडियो भेज देते हैं. अंतरिक्ष में रहे भारतीय वैज्ञानिक राकेश शर्मा (Rakesh Sharma) से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का वह वीडियो तो सबने देखा ही होगा जिसमें वह पूछती हैं कि हिंदुस्तान कैसा दिखता है और राकेश शर्मा जवाब देते हैं कि 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा'.

वर्तमान में इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में हर समय वैज्ञानिक मौजूद रहते हैं. इनसे पृथ्वी पर मौजूद स्पेस एजेंसियां लगातार संपर्क में रहती हैं. इसके अलावा, स्पेस में मौजूद कई सैटलाइट भी ऐसे हैं जो लगातार तस्वीरें भेजते रहते हैं. इन सबके लिए कम्युनिकेशन का कोई न कोई माध्यम तो इस्तेमाल होता ही है. आइए इसे विस्तार समझते हैं...

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वैज्ञानिकों का कहना है कि स्पेस में कम्युनिकेशन करना आसान काम नहीं है. अच्छी बात यह है कि स्पेस एजेंसी नासा ने इसमें अब महारत हासिल कर ली है और उसे स्पेस कम्युनिकेशन का अच्छा खासा अनुभव भी है. चांद पर मौजूद रोवर हो, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन हो या आर्टेमिस मिशन, इन सबसे संपर्क के लिए NASA का स्पेस कम्युनिकेशन ऐंड नैविगेशन (SCaN) काम करता है.

सैकड़ों किलोमीटर प्रति मिनट की रफ्तार से चलते हैं स्पेसक्राफ्ट
कोई भी कम्युनिकेशन नेटवर्क, ट्रांसमिटर->नेटवर्क->रिसीवर की मदद से काम करता है. ट्रांसमिटर उस मैसेज को कोड में बदलकर नेटवर्क के ज़रिए भेजता है और रिसीवर उसे रिसीव करके डिकोड कर लेता है. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे आप अपने फोन से बात करते हैं, बात नेटवर्क के ज़रिए जाता है और सामने वाले को आपकी आवाज हूबहू सुनाई देती है. यह तरीका धरती पर तो सही से काम करता है, क्योंकि आपका मोबाइल और मोबाइल के नेटवर्क आमतौर पर एक ही जगह पर रुके होते हैं. स्पेस में यही चीज दिक्कत देती है. स्पेस में मौजूद एयरक्राफ्ट या स्पेस स्टेशन सैकड़ों किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भागते रहते हैं. ऐसे में उनसे कम्युनिकेट करना आसान नहीं होता.

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इस समस्या का हल करने के लिए NASA ने पूरी पृथ्वी के सातों महाद्वीपों में बड़े-बड़े एंटीना लगा रखे हैं. इनकी जगह इतने ध्यान से चुनी गई है कि ये स्पेसक्राफ्ट और ग्राउंड स्टेशन के बीच कम्युनिकेशन की मुख्य धुरी के तौर पर काम करते हैं. ये एंटीना लगभग 230 फुट के होते हैं. इतना बड़ा आकार और हाई फ्रीक्वेंसी के होने की वजह से 200 करोड़ मील तक भी संपर्क किया जा सकता है.

TDRS की मदद से होता है 24X7 कॉन्टैक्ट
डायरेक्ट-टु-अर्थ सैटलाइट के अलावा नासा के पास कई रिले सैटेलाइट भी हैं. उदाहरण के लिए, स्पेस स्टेशन से ट्रैकिंग एंड डेटा रिले सैटेलाइट्स (TDRS) की मदद से संपर्क किया जाता है. ये सैटेलाइट न्यू मेक्सिको और गुवाम में मौजूद ग्राउंड सैटेलाइट को सिग्नल भेजते हैं. इसके लिए, ये चांद के चारों ओर चक्कर लगाने वाले ऑर्बिटर की भी मदद लेते हैं जो मैसेज को फॉरवर्ड करते हैं. तीन TDRS पृथ्वी के ऊपर ऐसी कक्षाओं में सेट किए गए हैं कि ये पूरी पृथ्वी को कवर करते हैं. यही वजह है कि इनसे हफ्ते के सातों दिन और दिन के 24 घंटे कम्युनिकेशन किया जा सकता है.

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लंबी दूरी होने की वजह से बैंडविड्थ भी काफी अहम होती है. ज्यादा बैंडविड्थ का मतलब है प्रति सेकेंड ज्यादा डेटा ट्रांसफर किया जा सकता है. इससे कम्युनिकेशन की रफ्तार बढ़ जाती है. वर्तमान में NASA रेडियो वेव का इस्तेमाल करती है. हालांकि, वह इन्फ्रारेड लेजर का इस्तेमाल करने वाली टेक्नोलॉजी विकसित करने में लगा हुआ है. अगर यह काम कर गई तो कम्युनिकेशन की स्पीड दोगुनी हो जाएगी.

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