डीएनए एक्सप्लेनर
What is Bofors Scam: भारतीय सेना के लिए स्वीडन से 1980 के दशक में बोफोर्स हॉवित्जर तोप खरीदने के 1,437 करोड़ रुपये के सौदे में 64 करोड़ रुपये की रिश्वत के आरोपों ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नींव हिला दी थी. इसकी जांच 39 साल बाद भी अधूरी है.
What is Bofors Scam: कांग्रेस को सताने के लिए बोतल के जिन्न की तरह बार-बार सामने आने वाला बोफोर्स तोप घोटाला फिर चर्चा में आ गया है. इस 39 साल पुराने घोटाले की जांच कर रही CBI ने अमेरिका से मदद मांगी है. इसके लिए आधिकारिक चैनल के जरिये अमेरिका को अनुरोध पत्र (Letter Rogatory) भेजा गया है, जिसमें उनके यहां हुई जांच से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने की अपील की गई है. सीबीआई ने फरवरी में भेजे इस LR में अमेरिका से अपील की है कि उनके यहां इस मामले से जुड़ी जानकारी निजी जांचकर्ता और Fairfax Group के प्रमुख माइकल हर्शमैन से दिलाई जाएं, जिन्होंने साल 2017 में भारत के दौरे पर आरोप लगाया था कि तत्कालीन कांग्रेस के कारण जांच अधूरी रह गई थी. इससे एक बार फिर 64 करोड़ रुपये की रिश्वतखोरी के बोफोर्स तोप कांड (Bofors Bribery Scandal) चर्चा में आ गया है, जिसे कारगिल युद्ध में 'गेमचेंजर' और साल 1989 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के लोकसभा चुनाव हारने का जिम्मेदार माना गया था.
हर्शमैन को कांग्रेस सरकार ने ही किया था तैनात
CBI अमेरिकी सरकार के जरिये जिस निजी जांचकर्ता माइकल हर्शमैन से उनकी जांच के फैक्ट्स जाना चाहती है, उसे साल 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) की कांग्रेस सरकार ने ही तैनात किया था. हर्शमैन को भारतीय वित्त मंत्रालय ने कुछ मामलों में मुद्रा नियंत्रण कानूनों के उल्लंघन और मनी लॉन्ड्रिंग की जांच करने की जिम्मेदारी दी थी. इनमें बोफोर्स तोप सौदा भी शामिल था. हर्शमैन साल 2017 में भारत आए थे. उस समय बोफोर्स तोप स्कैंडल को लेकर उनसे मीडिया ने सवाल पूछे थे तो हर्शमैन ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर ही इस मामले की जांच नहीं करने देने का आरोप लगाया था. उन्होंने कहा था कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार जांच को पटरी से उतार दिया था.
CBI ने अमेरिका से क्यों मांगी है मदद?
दरअसल हर्शमैन ने भारत दौरे के दौरान अपनी जांच में सामने आए फैक्ट्स भारत की जांच एजेंसियों से साझा करने की इच्छा जताई थी. इसके बाद से ही CBI ये फैक्ट्स हासिल करने की कोशिश करती रही है. पहले सीबीआई ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय से इससे जुड़े दस्तावेज मांगे, लेकिन मंत्रालय में ऐसे दस्तावेज नहीं मिले यानी किसी ने उन्हें ऑफिशियल रिकॉर्ड से गायब कर दिया था. इसके बाद एजेंसी ने साल 2023 और 2024 में आधिकारिक चैनल के जरिये अमेरिका से अनुरोध किया. इंटरपोल के जरिये भी अपील की गई, लेकिन अमेरिका ने कोई जवाब नहीं दिया. अब फिर CBI ने जनवरी, 2025 में केंद्रीय गृह मंत्रालय और उसके आधार पर फरवरी में स्पेशल कोर्ट से इजाजत मिलने के बाद अमेरिका को औपचारिक LR भेजा है, जिसका जवाब अमेरिका को देना ही होगा.
राजीव गांधी की 'मिस्टर क्लीन' की छवि खत्म कर दी थी इस घोटाले ने
साल 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने भारतीय सेना के लिए लंबी दूरी की हॉवित्जर फील्ड गन खरीदने का निर्णय लिया. इसके लिए स्वीडिश हथियार निर्माता कंपनी मैसर्स एबी बोफोर्स (M/S AB Bofors) के साथ 18 मार्च, 1986 को 1,437 करोड़ रुपये में 155mm की 400 तोप का कॉन्ट्रेक्ट दिया गया. इस कॉन्ट्रेक्ट के लिए बोफोर्स द्वारा भारतीय राजनेताओं और रक्षा अधिकारियों को 64 करोड़ रुपये की रिश्वत देने की जानकारी 16 अप्रैल, 1987 को स्वीडिश रेडियो चैनल ने अपनी रिपोर्ट में लीक की. इससे हंगामा मच गया. राजीव गांधी सरकार में ही शामिल विश्वनाथ प्रताप सिंह (VP Singh) व कई अन्य नेताओं ने इस मुद्दे पर विद्रोह कर दिया. इस घोटाले से पहले भ्रष्टाचार के मामले में राजीव गांधी की 'मिस्टर क्लीन' की छवि थी, जो इसके बाद खत्म हो गई. वीपी सिंह ने लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और चंद्रशेखर आदि नेताओं के साथ मिलकर जनता दल बनाया, जिसने साल 1989 में भाजपा के साथ गठबंधन करके लोकसभा चुनाव लड़ा और जबरदस्त जीत हासिल की. कांग्रेस की हार का कारण बोफोर्स तोप घोटाले से मिली निगेटिव चर्चा को ही माना गया था.
39 साल बाद भी पूरी नहीं हुई है जांच
साल 1987 में बोफोर्स तोप रिश्वत घोटाला स्वीडिश रेडियो चैनल के जरिये सामने आया, लेकिन भारत में आधिकारिक तौर पर इसकी जांच साल 1990 में जनता दल सरकार ने शुरू कराई. इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई, जो 39 साल बाद आज भी जारी है. सीबीआई ने 22 जनवरी, 1990 को केस दर्ज किया, जिसमें बोफोर्स कंपनी के तत्कालीन प्रेसिडेंट मार्टिन आर्ब्दो, बिचौलिये विन चड्ढा (Win Chadda) और हिंदुजा ग्रुप के मालिक हिंदुजा ब्रदर्स (Hinduja Brothers) को आपराधिक साजिश, धोखाधड़ी और चीटिंग का आरोपी बनाया गया.
9 साल बाद आई पहली चार्जशीट
सीबीआई ने पहली चार्जशीट करीब 9 साल बाद 22 अक्टूबर 1999 को दाखिल की, जिसमें विन चड्ढा, इटली निवासी ओटावियो क्वात्रोची (Ottavio Quattrocchi), तत्कालीन रक्षा सचिव एसके भटनागर, मार्टिन आर्ब्दो (Martin Arbdo) और बोफोर्स कंपनी को आरोपी बनाया गया था. इसके बाद 9 अक्टूबर, 2000 को सप्लीमेंट्री चार्जशीट के जरिये हिंदुजा ब्रदर्स के खिलाफ आरोप दाखिल किए गए.
राजीव गांधी को अदालत ने किया दोषमुक्त
हालांकि 4 फरवरी, 2004 को दिल्ली हाई कोर्ट में जस्टिस जेडी कपूर (Justice JD Kapoor) की बेंच ने इस मामले में राजीव गांधी को दोषमुक्त घोषित किया था. हालांकि बेंच ने बोफोर्स कंपनी के खिलाफ IPC की धारा 465 के तहत जालसाजी के आरोप तय करने का आदेश दिया था. इसके बावजूद 31 मई, 2005 को सीबीआई का केस दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) में जस्टिस आरएस सोढी (Justice RS Sodhi) की बेंच ने सबूतों की कमी के चलते सीबीआई का पूरा केस ही खारिज कर दिया. उस समय केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी. साल 2005 में ही एडवोकेट अजय अग्रवाल ने इसे लेकर एक अपील दाखिल की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को भी अपनी चिंताएं उठाने की अनुमति दी थी.
क्वात्रोची कांग्रेस राज में हुआ फरार, फिर कांग्रेस की सत्ता में मिली रिहाई
क्वात्रोची प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के दौर में 29 जुलाई, 1993 को भारत से फरार हो गया था. इसके बाद वह कभी भारत नहीं लौटा और किसी अदालत में पेश नहीं हुआ. इसके बाद साल 2011 में दिल्ली हाई कोर्ट ने यह कहकर क्वात्रोची को भी रिहा कर दिया कि उसके प्रत्यर्पण के लिए देश टैक्सपोयर्स की मेहनत की कमाई को बरबाद नहीं कर सकता. इस पर पहले ही 250 करोड़ रुपये का खर्च हो चुका है. क्वात्रोची की 13 जुलाई, 2013 को अपने देश में मौत हो गई. अन्य आरोपियों में राजीव गांधी, आर्ब्दो, एसके भटनागर और विन चड्ढा की भी मौत हो चुकी है.
13 साल तक सोई रही सीबीआई
सीबीआई ने साल 2005 के हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने में 13 साल का समय लिया. साल 2017 में हर्शमैन के भारत आकर बयान देने के बाद सीबीआई साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट पहुंची और हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी, जिसे ज्यादा देरी के चलते सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था.
कारगिल युद्ध जीतने में काम आई थी बोफोर्स
भले ही बोफोर्स तोप की खरीद में रिश्वतखोरी भारतीय राजनीतिक इतिहास का सबसे हंगामेदार स्कैंडल्स में से एक रहा, लेकिन इस तोप की क्षमता पर भारतीय सेना ने कभी सवाल नहीं उठाया. साल 1999 के कारगिल युद्ध (Kargil War) में ऊंचे पहाड़ों पर कब्जा करके बैठे पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ भारतीय सेना की जीत में बोफोर्स तोप को ही 'गेमचेंजर' माना गया था. इस तोप की ऊंची पहाड़ी चोटियों तक गोला फेंककर दुश्मनों के बंकर नष्ट करने की क्षमता ने भारतीय सेना को उनका सफाया करने में बहुत मदद दी थी.
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