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Book Review: कविताओं के साझा संग्रह प्रतिरोध का स्त्री-स्वर में यूपी से 7, एमपी, बिहार और झारखंड से 3-3, दिल्ली से 2 और राजस्थान व महाराष्ट्र से 1-1 कवियां शामिल की गई हैं. इन कविताओं में स्त्री का दर्द, उसका संघर्ष किसी प्रदेश विशेष से नहीं बंधा है, वह वाकई भारतीय स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है.
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डीएनए हिंदी : कवि और प्रखर स्त्रीवादी आलोचक सविता सिंह के संपादन में आए कविता संग्रह 'प्रतिरोध का स्त्री-स्वर' में 20 कवियों की कविताएं हैं. (कवि-कवयित्री से लिंगभेद झलकता है, चाहता हूं कि साहित्य में यह लिंगभेद खत्म हो, इसलिए कविता लिखने वाला चाहे पुरुष हो या स्त्री - दोनों के लिए 'कवि' शब्द का ही इस्तेमाल करने का पक्षधर हूं) ये कवि हैं - शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता झा, अनीता भारती, हेमलता महिश्वर, वंदना टेटे, रीता दास राम, नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल, सीमा आजाद, सुशीला टाकभौरे, कविता कृष्णपल्लवी, जसिंता केरकेट्टा और रुचि भल्ला. प्रदेशवार देखा जाए तो इस संग्रह में उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से 7, मध्य प्रदेश, बिहार और झारखंड से 3-3, दिल्ली से 2 और राजस्थान व महाराष्ट्र से 1-1 कवियां शामिल की गई हैं. लेकिन हिंदी भाषी इन कवियों की कविताओं में स्त्री का दर्द, उसका संघर्ष किसी प्रदेश विशेष से नहीं बंधा है, वह वाकई भारतीय स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है.
इस संग्रह से गुजरते हुए पहाड़ी कवि नंदकिशोर हटवाल की चर्चित कविता 'बोए जाते हैं बेटे' की याद सहज हो आई. यह पूरी कविता इस तरह है - बोये जाते हैं बेटे/और उग आती हैं बेटियां/खाद-पानी बेटों में/और लहलहाती हैं बेटियां/एवरेस्ट की ऊंचाइयों तक ठेले जाते हैं बेटे/और चढ़ आती हैं बेटियां/कई बार गिरते हैं बेटे/और संभल जाती हैं बेटियां/भविष्य का स्वप्न दिखाते बेटे/यथार्थ दिखाती बेटियां/रुलाते हैं बेटे/और रोती हैं बेटियां/जीवन तो बेटों का है/और मारी जाती हैं बेटियां। लेकिन प्रतिरोध का स्त्री-स्वर पढ़ते हुए यह बार-बार ध्यान आता रहा है कि पहले 'मारी जाती होंगी बेटियां', लेकिन अब ऐसा नहीं होने देना है. स्त्रियों को अब यह स्वीकार नहीं कि उन्हें 'आवांछित' समझा जाए, उन्हें परिवार या समाज में दोयम दर्जा मिले. अब वे कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार हैं. बल्कि वे चुनौती की तरह इस मर्दवादी समाज के सामने मुखर हैं. वे अगुवाई करने को तैयार हैं. वे डंके की चोट पर पुरुषों को चुनौती दे रही हैं कि तुम चाहे तो अनुगामी बनो.
इस साझा संग्रह की पहली कवि शुभा हैं. महज चार लाइन में सिमटी 'सहजात' शीर्षक की उनकी कविता युगों-युगों से पसरी पीड़ा उजागर कर देती है -
दुख मुझसे पहले बैठा था
माँ के गर्भ में
हम साथ-साथ पैदा हुए
वह मुझसे बड़ा था।
इस संग्रह में कात्यायनी की बहुचर्चित कविता है 'सात भाइयों के बीच' भी शामिल है. चंपा नाम की एक स्त्री पात्र के जरिए लिखी गई इस कविता में स्त्री जीवन के संघर्ष को परत दर परत खोलती हुई कवि बताती हैं कि स्त्रियां जीवट होती हैं. सचमुच वे फिनिक्स होती हैं, मर कर भी नहीं मरतीं. इस संग्रह में उनकी एक अन्य कविता है 'इस स्त्री से डरो'. इस कविता का अंग्रेजी अनुवाद जगदीश नलिन ने किया है.
यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में।
उससे पूछो
पिंजरे के बारे में पूछो
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में।
जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है।
यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में एक गीत।
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबासियाँ
इन्हें समझो,
इस स्त्री से डरो।
इस संग्रह की अधिकतर कविताएं प्रतिरोध से भरी हुई हैं. वे बताती हैं कि प्रतिरोध के लिए जरूरी नहीं कि चीखा ही जाए, वे समझाना चाहती हैं कि मौन भी प्रतिरोध का स्वर है और उलटबासियां भी. अजंता देव की एक छोटी-सी कविता है 'शांति भी एक युद्ध है' -
तन कर खड़ा होता है
हिंसा के विरुद्ध अहिंसा
नफरत के विरुद्ध प्रेम
शांति भी एक युद्ध है
युद्ध के खिलाफ।
सजग स्त्री की जिद और उसके विद्रोह का स्वर आपको प्रज्ञा रावत की कविता में भी सुनाई पड़ेगा. इस संग्रह में उनकी एक कविता 'बीजमंत्र' शीर्षक से है. पढ़ें -
जितना सताओगे
उतना उठूँगी
जितना दबाओगे
उतना उगूँगी
जितना बन्द करोगे
उतना गाऊँगी
जितना जलाओगे
फैलूँगी
जितना बाँधोगे
उतना बहूँगी
जितना अपमान करोगे
उतनी निडर हो जाऊँगी
जितना प्रेम करोगे
उतनी निखर जाऊँगी।
वंदना टेटे की कविताओं में आदिवासी स्त्री का दर्द और दर्प दोनों दिखेंगे. उनकी कविताओं में जल, जंगल और जमीन की आवाज सुनाई देगी. संघर्ष करने को तैयार स्त्री उन्हें दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्री दिखती है. जाहिर है कि यह स्थिति इस मर्दवादी समाज के लिए संदेश है कि अपने आप को बदलो. कंधे से कंधा मिलाकर चलो, कदम दर कदम साथ चलने की आदत बनाओ. वंदना टेटे की एक कविता है 'जब मैं हाथ में ले लेती हूँ' -
टाँगी,
हँसिया,
दाब,
दराँती
ये सब हमारी सुन्दरता के
प्रसाधन हैं
जिन्हें हाथ में पकड़ते ही
मैं दुनिया की
सबसे सुन्दर स्त्री हो जाती हूँ
तब कहीं दूर रैम्प पर
लड़खड़ाती हुई टाँगों वाली
तुम्हारी सारी विश्वसुन्दरी पुतलियाँ
पछ़ाड़ खाकर गिर जाती हैं
प्रायोजक भाग उठते हैं
टीवी डिसकनेक्ट हो जाता है
मोबाइल के टॉवर
ठप्प हो जाते हैं
जब मैं हाथ में ले लेती हूँ
टाँगी, हँसिया, दाब, दराँती
या इन जैसा कुछ भी...
इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए आप स्त्रीमन की कई परतों से गुजरेंगे. इन कविताओं में देश-दुनिया, ईश्वर, रिश्ते-नाते, नैतिक मूल्यों और परंपराओं को पुनर्परिभाषित की चाहत दिखेगी. इस बदलाव के रोडमैप दिखेंगे. जीवन को अपने तरीके से जीने की तमन्ना दिखेगी. इस संग्रह में नीलेश रघुवंशी की एक कविता है 'इस लोकतंत्र में' -
मैं जीना चाहती हूँ
लेकिन
वैसे नहीं जैसे तुम चाहते हो
मैं पेड़ को पेड़ कहना चाहती हूँ
उसके हरेपन और नए पत्तों में
खिल जाना चाहती हूँ
तुम उसके इतिहास में जाकर कहते हो
ये हमारे मूल का नहीं
तुम पेड़ की मूल प्रजाति में विश्वास करते हो
मुझे पेड़ के संग हरियाने से रोकते हो
जिस दिन गिलहरी ने
अपना घोंसला बनाया पेड़ में
उस दिन से मेरा मन पेड़ के भीतर रहने लगा
गिलहरी कहीं भी किसी भी जगह गाँव-देश परदेश में
बना सकती है किसी भी पेड़ पर अपना घर
एक गिलहरी दूसरी गिलहरी से
कभी नहीं पूछती - तुम्हारा पूरा नाम क्या है
मैं नदी-सा बहता जीवन जना चाहती हूँ
तुम हो कि नदी को घाट से पाट देना चाहते हो
वाल्मीकि घाट पर खड़े हो झाँकती हूँ नदी में
तुमने नदी को नदी से पाट दिया
किसी एक को राष्ट्रीय बग्गी में सुशोभित करते हो
लेकिन
हम सतरंगी सपनों के संग घोड़ी पर भी नहीं बैठ सकते
तुमने हमसे हमारे द्वीप छीने
सारा नमक ले लिया और सबसे ज्यादा
खारेपन की उम्मीद हमीं से करते हो
देश का संविधान कहता है
हमें वोट देने का अधिकार है
तुम कहोगे लोकतंत्र में ऐसा ही होता है
मैं कहती हूँ
जब नदी को नदी, पेड़ को पेड़ और
अँधेरे को अँधेरा नहीं कह सकते तो
इस लोकतंत्र में
किससे कहूँ अपने मन की बात।
इस संग्रह की एक कवि हैं निर्मला पुतुल. उनकी कविताओं में आदिवासी समाज को लेकर, उसकी स्त्रियों को लेकर जो नजरिया बाहरी समाज का होता है, वह अक्सर मुखर हुआ है. इस संग्रह में उनकी एक कविता है 'मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में' -
वे घृणा करते हैं हमसे
हमारे कालेपन से
हँसते हैं, व्यंग्य करते हैं हम पर
हमारे अनगढ़पन पर कसते हैं फब्तियाँ
मज़ाक़ उड़ाते हैं हमारी भाषा का
हमारे चाल-चलन रीति-रिवाज
कुछ पसंद नहीं उन्हें
पसंद नहीं है, हमारा पहनावा-ओढ़ावा
जंगली, असभ्य, पिछड़ा कह
हिक़ारत से देखते हैं हमें
और अपने को सभ्य श्रेष्ठ समझ
नकारते हैं हमारी चीज़ों को
वे नहीं चाहते
हमारे हाथों का छुआ पानी पीना
हमारे हाथों का बना भोजन
सहज ग्राह्य नहीं होता उन्हें
वर्जित है उनके घरों में हमारा प्रवेश
वे नहीं चाहते सीखना
हमारे बीच रहते, हमारी भाषा
चाहते हैं, उनकी भाषा सीखें हम
और उन्हीं की भाषा में बात करें उनसे
उनका तर्क है कि
सभ्य होने के लिए ज़रूरी है उनकी भाषा सीखना
उनकी तरह बोलना-बतियाना
उठना-बैठना
ज़रूरी है सभ्य होने के लिए उनकी तरह पहनना-ओढ़ना
मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में
अप्रिय
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल, फल, लकड़ियाँ
खेतों में उगी सब्ज़ियाँ
घर की मुर्गियाँ
उन्हें प्रिय है
मेरी गदराई देह
मेरा मांस प्रिय है उन्हें!
इस संग्रह की अधिकतर कवियों की कविताएं स्त्री स्वतंत्रता की मुनादी करती हैं. वे बताती हैं कि स्त्रियां देश-काल-समाज को लेकर सोचती-समझती हैं. समर्थन और विरोध का चयन वे अपने बल पर कर सकती हैं. इसलिए इस संग्रह की कविताओं में स्त्रियां खुलकर विरोध करती दिखती हैं और खुलकर समर्थन का स्वर बुलंद करती हैं. उन्हें समाज और सत्ता का विरोध करने से भी गुरेज नहीं. वे अपनी राय और नजरिए के समर्थन में मुखर होकर सामने आती हैं. इस संग्रह में शाहीनबाग जैसी स्थितियों पर बुनी हुई कविताएं भी हैं तो वरवर राव से लेकर मजदूर के पक्ष में बुनी गई कविताएं भी. इस संग्रह में सीमा आजाद की एक कविता है 'वरवर राव के लिए'. पढ़ें -
वो कविताओं में उतर कर
क्रांति के बीज बोता है
वो कविता लिखता भर नहीं
उसे जीता भी है
कविता के स्वप्न को
ज़मीन पर बोता भी है
वो सिर्फ कवि नहीं
क्रांतिकारी कवि है
कहते हैं
कवि क़ैद हो सकता है
कविता आज़ाद होती है
कवि मर जाता है
कविता ज़िंदा रहती है
और समय के दिल में धड़कती रहती है
लेकिन वह सिर्फ कवि नहीं है
कविता बन चुका है
कविता बन समय के दिल में धड़क रहा है
ग़ौर से देखो
सत्ता के निशाने पर
सिर्फ़ कवि नहीं
कविता भी है
जेल के भीतर ही
कविता की हत्या की सुपारी दी जा चुकी है
समय का दिल ख़तरे में है
ऐसे समय से निकलने की राह
उसने ही बताई है -
'कविता सिर्फ़ लिखो मत
उसे जिओ भी'
कविता के स्वप्न को
ज़मीन पर बोओ भी
कविता में उतर
क्रांति के बीज बोओ भी।
कहना न होगा कि 'प्रतिरोध का स्त्री-स्वर' में जिन कवियों की कविताएं संग्रहित हैं, वे हमें स्त्रियों के सुखद भविष्य को लेकर आशान्वित तो करती ही हैं, कविता के नए तेवर से परिचित कराते हुए स्त्री संसार की अबूझ परतों को समझने की मर्दवादी समाज को एक नई दृष्टि भी देती हैं.
साझा कविता संग्रह : प्रतिरोध का स्त्री-स्वर
संपादक : सविता सिंह
प्रकाशक : राधाकृष्ण पेपरबैक
मूल्य : 350 रुपए
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