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Maxim Gorky: गोर्की का लिखा 'मेरा बचपन' के सारे चरित्र तत्कालीन संघर्षों और कठिनाइयों का ब्योरा पेश करने जैसे हैं. अपने अंतिम उपन्यास 'द लाइफ ऑफ क्लीम समगीन' में गोर्की ने पूंजीवाद के उत्थान और पतन की कहानी है. गोर्की ने इसे विकास का नाम दिया है.
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मैक्सिम गोर्की का उपन्यास 'मां' यथार्थवादी आंदोलन का सजीव घोषणा-पत्र है. मां का नायक है पावेल व्लासेफ. वह एक गरीब मजदूर. पावेल के चरित्र में उसकी मजबूती तो दिखती ही है, दुर्बलताएं और कमजोरी भी छुपाई नहीं गई हैं. यह एक बड़ी वजह है कि पावेल व्लासेफ का चरित्र हमें बहुत गहरे तक छूता है.
गोर्की का लिखा 'मेरा बचपन' के सारे चरित्र तत्कालीन संघर्षों और कठिनाइयों का ब्योरा पेश करने जैसे हैं. अपने अंतिम उपन्यास 'द लाइफ ऑफ क्लीम समगीन' में गोर्की ने पूंजीवाद के उत्थान और पतन की कहानी है. गोर्की ने इसे विकास का नाम दिया है. यह जानकर आपको आश्चर्य हो सकता है कि गोर्की जब आंदोलनों में शरीक होने लगे तो 1901 में उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और इस बार उन्हें कालेपानी की सजा हुई.
“उसे पकड़ लो!” सभी बच्चे एक साथ खुशी से चिल्ला उठे, “नन्हा यहूदी! नन्हे यहूदी को पकड़ लो!”
मुझे उम्मीद थी कि वह भाग खड़ा होगा. उसके दुबले, बड़ी आंखोंवाले चेहरे पर भय की मुद्रा अंकित थी. उसके ओठ कांप रहे थे. वह हंसी उड़ानेवालों की भीड़ के शोर के बीच खड़ा था. वह पांव उठा-उठाकर अपने आपको जैसे ऊंचा बनाने को कोशिश कर रहा था. उसने अपने कंधे राह की बाड़ पर टिका दिए थे और हाथों को पीठ के पीछे बांध लिया था.
और तब अचानक वह बड़ी शांत और साफ और तीखी आवाज में बोल उठा - “मैं तुम लोगों को एक खेल दिखाऊं?”
पहले तो मैंने सोचा कि यह उसका आत्मरक्षा का कोई तरीका रहा होगा - बच्चे उसकी बात में रुचि लेने लगे और उससे दूर हट गए. केवल बड़ी उम्र के और अधिक जंगली किस्म के लड़के ही उसकी ओर शंका और अविश्वास से देखते रहे - हमारी गली के लड़के दूसरी गलियों के लड़कों से झगड़े हुए थे. उनका पक्का विश्वास था कि वे दूसरों से कहीं ज्यादा अच्छे हैं और वे दूसरों की योग्यता की ओर ध्यान देने को भी तैयार नहीं थे.
पर छोटे बच्चों के लिए यह मामला एकदम सीधा-सादा था.
“दिखाओ - जरूर दिखाओ!”
वह खूबसूरत, दुबला-पतला लड़का बाड़ से परे हट गया. उसने अपने छोटे-से शरीर को पीछे की ओर झुकाया. अपनी अंगुलियों से जमीन को छुआ और अपनी टांगों को ऊपर की ओर उछालकर हाथों के बल खड़ा हो गया.
तब वह घूमने लगा, जैसे कोई लपट उसे झुलसा रही हो - वह अपनी बांहों और टांगों से खेल दिखाता रहा. उसकी कमीज और पैंट के छेदों में से उसके दुबले-पतले शरीर की भूरी खाल दिखाई दे रही थी - कंधे, घुटने और कुहनियां तो बाहर निकले ही हुए थे. लगता था, अगर एक बार फिर झुका, तो ये पतली हड्डियां चटककर टूट जाएंगी. उसका पसीना चूने लगा था. पीठ पर से उसकी कमीज पूरी तरह भीग चुकी थी. हर खेल के बाद वह बच्चों की आंखों में, बनावटी, निर्जीव मुसकराहट लिए हुए, झांककर देख लेता. उसकी चमक रहित काली आंखों का फैलना अच्छा नहीं लग रहा था - जैसे उनमें से पीड़ा झलक रही थी. वे अजीब ही ढंग से फड़फड़ाती थीं और उसकी नजर में एक ऐसा तनाव था, जो बच्चों की नजर में नहीं होता. बच्चे चिल्ला-चिल्लाकर उसे उत्साहित कर रहे थे. कई-एक तो उसकी नकल करने लगे थे.
लेकिन अचानक ये मनोरंजक क्षण खत्म हो गए. लड़का अपनी कलाबाजी छोड़कर खड़ा हो गया और किसी अनुभवी कलाकार की-सी नजर से बच्चों की ओर देखने लगा. अपना दुबला-सा हाथ आगे फैलाकर वह बोला, “अब मुझे कुछ दो!”
वे सब खामोश थे. किसी ने पूछा, “पैसे?”
“हां,” लड़के ने कहा.
“यह अच्छी रही! पैसे के लिए ही करना था, तो हम भी ऐसा कर सकते थे...”
लड़के हंसते हुए और गालियां बकते हुए खेतों की ओर दौड़ने लगे. दरअसल उनमें से किसी के पास पैसे थे भी नहीं और मेरे पास केवल सात कोपेक थे. मैंने दो सिक्के उसकी धूल भरी हथेली पर रख दिए. लड़के ने उन्हें अपनी अंगुली से छुआ और मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद!”
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वह जाने को मुड़ा, तो मैंने देखा कि उसकी कमीज की पीठ पर काले-काले धब्बे पड़े हुए थे.
“रुको, वह क्या है?”
वह रुका, मुड़ा, उसने मेरी ओर ध्यान से देखा और बड़ी शांत आवाज में मुस्कराते हुए बोला, “वह, पीठ पर? ईस्टर के मौके पर एक मेले में ट्रपीज करते हुए हम गिर पड़े थे - पिता अभी तक चारपाई पर पड़े हैं, पर मैं बिलकुल ठीक हूं.”
मैंने कमीज उठाकर देखा - पीठ की खाल पर, बाएं कंधे से लेकर जांघ तक, एक काला जख्म का निशान फैला हुआ था, जिस पर मोटी, सख्त पपड़ी जम चुकी थी. अब खेल दिखाते समय पपड़ी फट गई थी और वहां से गहरा लाल खून निकल आया था.
“अब दर्द नहीं होता” उसने मुस्कराते हुए कहा, “अब दर्द नहीं होता... बस, खुजली होती है...”
और बड़ी बहादुरी से, जैसे कोई हीरो ही कर सकता है, उसने मेरी आंखों में झांका और किसी बुजुर्ग की-सी गंभीर आवाज में बोला,
“तुम क्या सोचते हो कि अभी मैं अपने लिए काम कर रहा था! कसम से-नहीं! मेरे पिता... हमारे पास एक पैसा तक नहीं है. और मेरे पिता बुरी तरह जख्मी हैं. इसलिए - एक को तो काम करना ही पड़ेगा, साथ ही... हम यहूदी हैं न! हर आदमी हम पर हंसता है... अच्छा अलविदा!”
वह मुस्कराते हुए, काफी खुश-खुश बात कर रहा था. और तब अपने घुंघराले बालोंवाले सिर को झटका देकर अभिवादन करते हुए वह चला गया - उन खुले दरवाजे वाले घरों के पार, जो अपनी कांच की मारक उदासीनता भरी आंखों से उसे घूर रहे थे.
ये बातें कितनी साधारण और सीधी हैं - हैं न? लेकिन अपने कठिनाई के दिनों में मैंने अक्सर उस लड़के के साहस को याद किया है - बड़ी कृतज्ञता से भर कर!
(समाप्त)
'वह लड़का' की पहली किस्त
'वह लड़का' की दूसरी किस्त
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