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Jharkhand Politics में एक बड़ा चैप्टर खत्म, Shibu Soren ने Hemant Soren को सौंपी JMM की बागडोर, जानें उनका राजनीतिक सफर

Jharkhand Politics: झारखंड बनने के बाद मुख्यमंत्री कोई भी और किसी भी पार्टी का रहा हो या खुद शिबू सोरेन पर कैसे भी आरोप लगे हों, लेकिन झारखंड की राजनीति का मतलब शिबू सोरेन ही रहे हैं. ऐसे में उनका यह कदम राज्य की राजनीति में नए मोड़ की तरह है.

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Jharkhand Politics में एक बड़ा चैप्टर खत्म, Shibu Soren ने Hemant Soren को सौंपी JMM की बागडोर, जानें उनका राजनीतिक सफर

Jharkhand Politics: झारखंड की राजनीति ने मंगलवार को एक नए मोड़ ले लिया. राज्य के गठन के बाद से ही सभी दलों के बीच राजनीतिक धुरी की हैसियत रखने वाले शिबू सोरेन (Shibu Soren) ने अपनी बनाई पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की कमान अगली पीढ़ी को सौंप दी. करीब 38 साल तक शिबू सोरेन के जेएमएम चलाने के बाद अब मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (Hemant Soren) पार्टी की अगुआई करेंगे. दिशोम गुरु के नाम से चर्चित शिबू सोरेन पिछले कुछ समय से राजनीति में उतने एक्टिव नहीं रहे हैं, लेकिन फिर भी जेएमएम के अंदर अब तक आखिरी फैसला उन्हीं का होता था. अब सारे फैसलों की जिम्मेदारी मंगलवार को उन्होंने अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप दी. वह अब पार्टी के संस्थापक संरक्षक के तौर पर हेमंत का मार्गदर्शन करेंगे. इसे झारखंड की राजनीति में एक बड़ा मोड़ माना जा रहा है, क्योंकि राज्य के गठन के बाद से आज तक मुख्यमंत्री कोई और किसी भी पार्टी का रहा हो या शिबू सोरेन खुद कैसे भी आरोपों में फंसे रहे हों, लेकिन राज्य की राजनीति उनके ही इर्द-गिर्द घूमती रही है.

पिता की हत्या के बाद के संघर्ष से आए राजनीति में
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को हजारीबाग जिले के तत्कालीन गोला प्रखंड के नेमरा गांव (अब रामगढ़) में हुआ था. 27 नवंबर, 1957 को शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन की हत्या कर दी गई. पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन हजारीबाग में फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता केदार नाथ सिन्हा के घर पहुंच गए. यहां उन्होंने पतरातू-बड़कागांव रेल लाइन निर्माणके दौरान कुली का काम भी किया. इसके बाद वे छोटी-मोटी ठेकेदारी में जुटे रहे. जगह-जगह घूमते रहने के दौरान ग्रामीणों के हालात देखे तो शिबू ने राजनीति में उतरने का निर्णय लिया.

जिंदगी का पहला ही चुनाव हार गए थे शिबू
शिबू सोरेन ने जिंदगी का पहला चुनाव बड़दंगा पंचायत के मुखिया पद का लड़ा, लेकिन हार गए. इसके बाद जरीडीह विधानसभा सीट का चुनाव भी हार गए, लेकिन उनका संघर्ष जारी रहा. उन्होंने आदिवासी समुदाय की तरक्की के लिए सोनोत संथाल समाज का गठन किया और क्षेत्र में महाजनी प्रथा, नशा उन्मूलन और समाज सुधार और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया. यहीं से उनके दिन बदल गए. उनकी मुलाकात महाजनी प्रथा के खिलाफ 'शिवाजी समाज' बनाकर आंदोलन चला रहे विनोद बिहारी महतो से हुई. दोनों ने आपस में हाथ मिला लिए. यह गठजोड़ इतना पॉपुलर हुआ कि उनके आंदोलन को उग्रपंथी कहकर दबाने की कोशिश की गई. 

1972 में रखी गई जेएमएम की नींव
साल 1972 में शिबू और विनोद ने दोनों संगठनों का विलय करके झारखंड़ मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Morcha) की नींव रखी. उनके साथ मार्क्सवादी विचारधारा वाले एके राय भी जुड़ गए. इसके बाद आंदोलनों के दौर शुरू हुए. कई जगह पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की गोलियों से आंदोलनकारियों की मौत ने उनके आंदोलनों को जनता के बीच चिंगारी दे दी. हालांकि खुद शिबू सोरेन भी 23 जनवरी, 1975 को जामताड़ा जिले के चिरूडीह गांव में 11 लोगों के नरसंहार और कुड़को में हुए हत्याकांड में फंस गए. उन्हें मुकदमा भी झेलना पड़ा. लेकिन जनता ने इसे सरकारी दमन माना, जिससे उल्टा शिबू की लोकप्रियता और बढ़ गई और वे 'दिशोम गुरु' के तौर पर फेमस हो गए. 1978 में तो उनकी लोकप्रियता तब चरम पर पहुंच गई, जब दुमका में उनके समर्थकों बिहार के तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री महादेव मरांडी का घर घेरकर तोड़फोड़ दिया और पुलिस के सिपाहियों की 150 से ज्यादा राइफलें छीन लीं.

बिहार की राजनीति में जब बन गए 'गेम चेंजर'
शिबू सोरेन की राजनीति का सबसे अहम पड़ाव साल 1990 रहा, जब वे बिहार की राजनीति में 'गेम चेंजर' बन गए. दरअसल विधानसभा चुनाव में 324 सीटों में से लालू प्रसाद यादव की पार्टी जनता दल को 125 सीट मिली थी. लालू प्रसाद यादव को बहुमत का आंकड़ा पार कराने में JMM के 19 विधायकों का बड़ा योगदान रहा. इसके बाद से ही अलग झारखंड राज्य की शिबू सोरेन की कवायद को भी धार मिली. इसके बाद उन्हें केंद्र में भी 'गेम चेंजर' बनने का मौका मिला, जब उन्होंने अपने सांसदों के दम पर कांग्रेस की अल्पमत सरकार बचाई. हालांकि इसके बदले में रिश्वत लेने का आरोप उन पर लगा, जिसके लिए उन्हें लंबे समय तक मुकदमेबाजी झेलनी पड़ी. लेकिन इससे उन्हें नेशनल लेवल पर पहचान मिल गई.

विधानसभा से लोकसभा तक छाए रहे शिबू सोरेन

  • 1977 में पहला लोकसभा चुनाव हारने वाले शिबू सोरेन ने 1980 में दुमका संसदीय सीट से जीत हासिल की.
  • दुमका लोकसभा सीट से उनका यह नाता 1989, 1991 और 1996 में भी लगातार जुड़ा रहा.
  • 2002 में शिबू सोरेन ने लोकसभा को छोड़कर राज्यसभा के जरिये केंद्रीय राजनीति की राह पकड़ी.
  • 2004 में वे फिर से लोकसभा में लौटे और 2009 और 2014 में भी लगातार जीत के साथ सांसद बने.
  • 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच शिबू दुमका से चुनाव हारे, लेकिन तीसरी बार राज्यसभा की राह पकड़ ली.

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