भारत
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में तर्क दिया गया था कि नेम प्लेट लगाने से सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा और इसका उद्देश्य मुस्लिम दुकानदारों का सामाजिक रूप से आर्थिक बहिष्कार करना है.
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि कांवड़ यात्रा मार्ग पर स्थित होटल और ढाबों को अपने मालिकों की नाम की प्लेट लगानी होगी. सरकार के इस आदेश के खिलाफ याचिकाओं में तर्क दिया गया था कि इससे सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा और इसका उद्देश्य मुस्लिम दुकानदारों का सामाजिक रूप से जबरन आर्थिक बहिष्कार करना है.
हमें अपने मूल कांस्टीट्यूशनल वैल्यूज के प्रति ईमानदार होने के पहले सिद्धांतों की जांच करने की आवश्यकता है. एक स्थिर राजनीकिक व्यवस्था की तीन संस्थाएं होती हैं- राज्य, कानून का शासन और जवाबदेही के तंत्र. इनमें से राज्य और कानून के शासन को बहुत विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन जवाबदेही अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग महत्व रखती है.
व्यापाक संदर्भों में देखें तो जवाबदेही का मतलब है सरकार की जिम्मेदारी, जिसे अरस्तू के शब्दों में कहते हैं 'आम लोगों की भलाई' ही है, ना कि अपने निहित स्वार्थ. नियमित स्वतंत्र चुनाव कराना भी प्रक्रियात्मक जवाबदेही है. हालाकि, वास्तविक जवाबदेही का अर्थ यह भी होगा कि सरकार प्रक्रियात्मक जवाबदेही के अधीन हुए बिना समाज के व्यापक हित के प्रति प्रतिक्रिया करती है. (यानी अनियंत्रित शासक लंबे समय तक आम लोगों की भलाई के लिए उत्तरदायी नहीं रह सकते).
यदि राज्य सरकारों का यह निर्देश कानून और व्यवस्था बनाए रखने लिए था, तो क्या ऐसे मुद्दों की वजह से पहले कानून का उल्लंघन किया गया था? अगर सरकार की मंशा कांवड़ियों की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करना था तो अमरनाथ यात्रा पर वो क्या कहेंगे, जहां गाइड से लेकर कुलियों तक के लिए मुस्लिम लोग सेवा में लगे रहते हैं. देशभर में फैले मंदिरों में भी पूजा सामग्री से लेकर फूलों तक और छोटी-मोटी चीजों के बेचने का काम भी हिंदूओं के साथ मुस्लिम भी करते हैं. ऐसे निर्देश केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने के लिए हो सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट का इस पर रोक लगाने का फैसला सही था.
सुनवाई के दौरान यह भी परेशान करने वाला था कि जब कोर्ट ने पूछा कि शाकाहारी भोजन वाले यात्रियों के लिए यह उम्मीद करने का अधिकार है कि उनका खाना बनाने वाला और परोसने वाला केवल हिंदू हो. तो यह क्या फसल की खेती भी उसी समुदाय के सदस्यों द्वारा की जाएगी?
प्रथम दृष्टया में यह प्रश्न वास्तविकता को नजरअंदाज करता है. वहीं मुस्लिम भी इस खाद्य रंदभेद का विरोध कर रहे हैं. वे भी मांस को हलाल प्रमाणित होने की अपेक्षा करते हैं. मुस्लिमों की चाहत है कि डेयरी प्रोडक्ट्स, तेल, चीनी, बेकरी आइटम समेत अन्य गैर-खाद्य पदार्थ भी हलाल मिले. हलाल सर्टिफिकेशन के लिए ठीक वैसी ही शर्त की आवश्यकता होती है, जैसी कोर्ट ने कांवड़ यात्रियों की अपेक्षाओं के बारे में पूछी थी.
वो भी चाहते हैं कि इस्लामी कानून के अनुसार उत्पादित हो और पूरा उत्पादन मुसलमानों द्वारा संचालित किया जाना चाहिए. यूपी सरकार ने पिछले साल राज्यभर कुछ वस्तुओं के लिए हलाल प्रमाणीकरण पर प्रतिबंध लगा दिया था. हालांकि इस कदम की काफी राजनीतिक आलोचना हुई थी.
यह अक्सर गलत तरीके से मान लिया जाता है कि मानव व्यवहार के सिद्धांतों को बिना किसी बदलाव के सभी पैमानों पर लागू किया जा सकता है. Immanuel Kant स्पष्ट अनिवार्यता यह कहती है कि हमेशा ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिसे सभी कार्य स्थानों और परस्थितियों में सामान्यीकृत किया जा सके. सिद्धांत रूप में सही होने के बावजूद इसे व्यवहार में लाना कठिन है. एक देश एक बड़ा शहर नहीं है और एक शहर एक बड़ा परिवार नहीं है. पुराने जमाने से मनुष्यों को सार्वभौमिकता के पैमाने पर खरा उतरने में कठिनाई होती रही हैं.
प्रचीन काल में यूनानी जिन्होंने लोकतंत्र दिया वो केवल अपने नागरिकों के साथ समान व्यवहार करते थे, लेकिन दासों या अप्रवासियों के साथ ऐसा नहीं था. थियोडोसियस के कोड ने रोमन नागरिकों को उनके कानूनी अधिकारों से वंचित कर दिया था. जिन्होंने 'बर्बर' लोगों से विवाह किया. यहूदियों ने 'मोटे खून' और 'पतले खून' के बीच अंतर किया. आधुनिक युग में ऐसे कई उदाहरण देखे गए. ऐसे फैसले और सोच समाज को सिर्फ बांटने का काम करते हैं. लेकिन हकीकत में समाज को जोड़ना है तो एक-दूसरे के धर्म के प्रति प्रेम रखना होगा.
हरेक उदार समाज में भी सामाजिक विषमता का चलन रहा है. इसकी परिणति अल्पसंख्यक समाज के मानदंडों को बहुसंख्यकों की ओर से तय किए जाने के तौर पर दिखती है. इस तथ्य को हर कदम पर तार्किक तरीके से देख सकते हैं कि कैसे अल्पसंख्यकों का एक छोटा सा असहिष्णु गुट, जो बलिदान देने के लिए तत्पर रहता है, आखिरकार एक लोकतांत्रिक समाज को अपने मानदंडों का पालन करने के लिए मजबूर करेगा.
समाज के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए यह ज़रूरी है कि मुट्ठी भर लोगों के संकीर्ण एजेंडे के विरोध में बहुसंख्यकों के आवेग को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत नियंत्रित किया जा सके. इसे सुनिश्चित करना न्यायालय के अनिवार्यत: उद्देश्यों में होना चाहिए. जंगल में भेड़िये की आज़ादी भेड़ की आज़ादी की कीमत पर आती है. यह दीगर बात है कि जो भेड़ पूरी जिंदगी भेड़िये से डरकर गुजार देती है, अंत में उसे चरवाहा ही खा जाता है!
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