भारत
Jammu and Kashmir: जम्मू और कश्मीर में सियासी पार्टियों का भविष्य अधर में है. न तो वहां चुनाव कराने का ऐलान हो रहा है, न ही कोई एक पार्टी ऐसी उभरी है जिस पर देश की जनता भरोसा कर रही हो.
डीएनए हिंदी: देश के किसी हिस्से में अगर राजनीतिक पार्टियां सबसे ज्यादा असमंजस की स्थिति में है तो वह जम्मू और कश्मीर (Jammu and Kashmir) ही है. किसी भी पार्टी को यह नहीं लग रहा है कि वह अकेले चुनाव होने पर सरकार बनाने की स्थिति में होगी. वहीं जब गठबंधन की बात हो तब स्थितियां और उलट हो जाती हैं. जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) जैसी दिग्गज पार्टियों का हाल भी कुछ ऐसा ही है.
पीडीपी की स्थापना 1999 में दिवंगत मुफ्ती मुहम्मद सईद ने घाटी केंद्रित मुख्यधारा की पार्टी के रूप में नेशनल कॉन्फ्रेंस की राजनीतिक ताकत को चुनौती देने के लिए की थी. दोनों 5 अगस्त, 2019 तक कट्टर प्रतिद्वंद्वी बने रहे, जब अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया और राज्य को एक केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया.
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बदल गया है घाटी का सियासी भविष्य
संवैधानिक उथल-पुथल ने जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक मानचित्र को भी बदल दिया. दो कट्टर प्रतिद्वंद्वियों ने पीपुल्स अलायंस फॉर गुप्कार डिक्लेरेशन (पीएजीडी) में शामिल होने के लिए सामान्य कारण बनाया.
अचानक, नेशनल कॉन्फ्रेंस अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला और पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने एक साझा मंच साझा किया, जिसे उन्होंने 'एक बड़ा कारण' कहा - अनुच्छेद 370 की बहाली और जम्मू-कश्मीर के लिए राज्य के लिए लड़ने के लिए.
घाटी में क्या है कश्मीर का रुख?
भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने 'एक निशान, एक विधान, एक प्रधान' के नारे के साथ देश के बाकी हिस्सों के साथ जम्मू-कश्मीर के पूर्ण एकीकरण की अपनी 70 साल पुरानी प्रतिबद्धता पूरी की थी.
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अनुच्छेद 370 के निरस्त होने तक जम्मू-कश्मीर का अपना संवैधानिक प्रमुख, राज्यपाल था, इसका अपना राज्य ध्वज (निशान) और अपना संविधान (विधान) था. 2019 तक नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी सहित क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने चुनाव लड़ा, अपने चुनाव अभियानों को जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति के इर्द-गिर्द घुमाया.
असमंजस में क्यों हैं पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस?
नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता के लिए लड़ने का दावा किया और पीडीपी ने स्वशासन के लिए लड़ाई लड़ी, दो नारे एक ही सिक्के के दो पहलू थे. अब, जब नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के सबसे मजबूत समर्थकों के मन में भी अनुच्छेद 370 की बहाली दूर की कौड़ी बनी हुई है, तो दोनों दल 'बड़े कारण के लिए लड़ाई' छोड़ने पर सहमत नहीं हैं.
निरसन को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है और एनसी और पीडीपी दोनों ने स्वीकार किया है कि शीर्ष अदालत का निर्णय बाध्यकारी होगा. विधानसभा सीटों के मामले में 'बड़े उद्देश्य के लिए बड़ी लड़ाई' से मतदाताओं को खुश करने की संभावना नहीं है, लेकिन नई दिल्ली से दूरी बनाए रखना ही एकमात्र तरीका है जिससे कोई भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपने अस्तित्व को सही ठहरा सकता है.
कश्मीर में सियासी पार्टियों के क्या हैं वादे?
विकास, रोजगार, आम आदमी के सशक्तिकरण के मामले में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का दावा दूसरे से बड़ा नहीं है. इन दोनों पार्टियों ने राज्य पर शासन किया है, हालांकि नेशनल कॉन्फ्रेंस की पारी पीडीपी से काफी लंबी थी.
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नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष, उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में एक प्रांतीय पार्टी की बैठक की अध्यक्षता की, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि नेशनल कॉन्फ्रेंस सभी 90 विधानसभा सीटों के लिए उम्मीदवार उतारेगी.
इतने भ्रम में क्यों है गुपकार?
दो पीएजीडी घटकों के बीच किसी भी चुनावी गठबंधन की संभावनाओं को समाप्त कर दिया था, जब तक कि नेशनल कॉन्फ्रेंस अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने कुछ नुकसान नियंत्रण करने के लिए कदम नहीं उठाया. उन्होंने कहा कि कौन कितनी सीटों पर लड़ेगा, यह तभी तय होगा जब चुनाव की घोषणा हो जाएगी.
बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में इन दोनों दलों के जीवित रहने का एकमात्र मौका गठबंधन में चुनाव लड़ने का होगा, लेकिन उनके नेताओं की सत्ता की महत्वाकांक्षा गठबंधन की घोषणा होने पर भी लंबे समय तक चलने की अनुमति नहीं दे सकती है.
क्या है घाटी में विधानसभा साीटों का आंकड़ा?
घाटी में 47 विधानसभा सीटें हैं, जबकि जम्मू संभाग में 43 हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस को अतीत में जम्मू संभाग में कुछ सीटें मिलती रही हैं और पीडीपी जम्मू-कश्मीर के उस क्षेत्र में मामूली रूप से मौजूद है. कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ नेता, गुलाम नबी आजाद के प्रवेश ने जम्मू संभाग में नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा जीती गई सीटों का भाग्य अतीत में खुला छोड़ दिया है.
घाटी में क्या है गुलाम नबी आजाद का कद?
गुलाम नबी आजाद का घाटी में ज्यादा राजनीतिक दबदबा नहीं है. सज्जाद गनी लोन की अध्यक्षता वाली पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) और सैयद अल्ताफ बुखारी की अध्यक्षता वाली अपनी पार्टी घाटी के मध्य और उत्तरी हिस्सों में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी को चुनौती दे सकती है.
पीसी और अपनी पार्टी को कितनी सीटें मिलती हैं, यह देखना होगा, लेकिन जिन सीटों पर ये दोनों पार्टियां नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी को चुनौती देने जा रही हैं, वे अब ऐसे क्षेत्रों में अच्छी तरह से स्थापित नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए एक निष्कर्ष नहीं हैं.
बहुमत से दूर हैं सारी सियासी पार्टियां!
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के बाद पार्टी की स्थिति जो भी हो, यह विश्वास करना कठिन होगा कि एनसी और पीडीपी अलग-अलग या गठबंधन में आगामी विधानसभा चुनावों में साधारण बहुमत हासिल कर सकते हैं.
यह कहने के बाद जम्मू संभाग के जम्मू, सांबा, कठुआ, उधमपुर और रियासी जिलों में अपनी मजबूत स्थिति के बावजूद बीजेपी को उसी संभाग के पुंछ, राजौरी, डोडा, किश्तवाड़ और रामबन जिलों में मजबूत पकड़ बनाने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा.
घाटी के सियासी भविष्य पर चुप हैं सियासी पंडित
क्या आगामी विधानसभा चुनावों के दौरान बीजेपी 90 विधानसभा सीटों में से 46 सीटों पर साधारण बहुमत हासिल करने में सफल होगी. खैर, अब तक का जवाब है नहीं. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के बाद कौन किसके साथ गठबंधन करता है, कुछ सबसे चतुर राजनीतिक विश्लेषकों को अभी भी चकित करता है. (इनपुट: IANS)
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